शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--8
देवदास ः शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय बांग्ला उपन्यास
उस समय प्रातः नौ बजे रात का समय था। बासे के सब लोगो तथा चुन्नीलाल ने अत्यन्त विस्मय के साथ देखा कि देवदास गाड़ी पर माल-असबाब लादकर मानो सर्वदा के लिए बासा छोड़कर घर चले गये। उनके चले जाने पर चुन्नीलाल ने क्रोध से बासे के अन्य लोगो से कहा- ‘ऐसे रंगे सियार के समान आदमी किसी भी तरह नही पहचाने जा सकते।’
बुद्धिमान तथा दूरदर्शी मनुष्यो की यह रीति होती है कि तत्काल ही किसी विषय पर अपनी दृढ़ सम्मति प्रकट नही करते- एक ही पक्ष को लेकर विचार नही करते, एक ही पक्ष को लेकर अपनी धारणा स्थिर नही करते, वरन दोनो पक्षो को तुलनात्मक दृष्टि से परीक्षा करते है और तब कोई अपना गंभीर मत प्रकट करते है। ठीक इसके विपरीत एक श्रेणी के और मनुष्य होते है, जिनमे किसी विषय पर विशेष विचार करने का र्धर्य नही रहता। ये एकाएक अपनी भली-बुरी सम्मति स्थिर कर लेते है। किसी
विषय मे डूबकर विचार करने का श्रम ये लोग स्वीकार नही करते, केवल विश्वास के बल चलते है। ये लोग संसार मे किसी कार्य को न कर कसते हो, यह बात नही है, वरन् काम पड़ने पर समय-समय पर ये लोग औरो की अपेक्षा अधिक कार्य करते है। ईश्वर की कृपा होने से ये लोग उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर प्रायः देखे जाते है और न होने से अवनति की गंभीर कन्दरा मे आजन्म के लिए पड़े रहते है, न उठ सकते है, न बैठ सकते है, और न प्रकाश की ओर देख सकते है, निश्चल, मृत, जलपिंड की भांति पड़े रहते है। देवदास भी इस श्रेणी के मनुष्य थे। दूसरे दिन प्रातः काल वे घर पहुंचे। माता ने आश्चर्य से पूछा- ‘देवा, क्या कॉलेज की छुट्टी हो गई?’
दो दिन देवदास ने बड़ी चुस्ती के साथ बिताये। उसकी जो अभिलाषा थी वह पूरी नही हो रही थीपार्वती से किसी निर्जन स्थान पर भेट नही होती। दो दिन बाद पार्वती की भी मां ने देवदास को सामने देखकर कहा- ‘अगर इधर आ गये हो, तो पार्वती के विवाह तक ठहर जाओ।’
देवदास ने कहा- ‘अच्छा।’
दोपहर के समय पार्वती नित्य बांध से जल लाने के लिए जाती थी। बगल मे पीतल की कलसी लेकर आज भी वह घाट पर आयी, देखा, निकट ही एक बेर के पड़ की आड़ मे देवदास जल मे बंसी फेककर बैठे है। एक बार उसके मन मे आया कि लौट चले, एक बार मन मे आया कि चुपके से जल भरकर ले चले। किंतु जल्दी मे वह कुछ भी स्थिर न कर सकी। कलसी को घाट पर रखते समय सम्भवतः कुछ शब्द हुआ, इसी से देवदास की दृष्टि से उस ओर ख्िांच गयी। उसने पार्वती को देख, हाथ के इशारे से बुलाकर कहा- ‘पत्तो, सुन जाओ!’
पार्वती धीरे-धीरे पास जागर खड़ी हुई। देवदास ने एक बार मुख उठाया, फिर बहुत देर तक शून्य दृष्टि से जल की ओर देखते रहे। पार्वती ने कहा- ‘देव दादा, मुझे कुछ कहते हो?’
देवदास ने किसी ओर देखकर कहा- ‘हूं बैठो।’
पार्वती बैठी नही, सिर नीचा किये खड़ी रही। किन्तु जब कुछ देर तक कोई बातचीत नही हुई, तो पार्वती ने धीरे-धीरे एक-एक पांव घाट की ओर बढ़ाना आरंभ किया। देवदास ने एक बार सिर उठाकर उसकी ओर देखा फिर जल की ओर देखकर कहा- ‘सुनो!’
पार्वती लौट आयी, किन्तु फिर भी देवदास ने कोई बात नही कही, यह देख वह लौट गयी। देवदास निस्तब्ध बैठेे रहे, थोड़ी देर बाद उन्होने फिर देखा, पार्वती जल लेकर जाने की तैयारी कर रही है। यह देख वह हंसी हटाकर घाट के ऊपर आ खड़े हुए - ‘मै आया हूं।’ पार्वती ने केवल खड़ा रख दिया, कुछ बोली नही।
पार्वती कुछ देर तक चुपचाप खड़ी रही, अंत मे अत्यन्त मीठे स्वर से पूछा- ‘क्यो?’
‘तुमने लिखा नही था?’
‘नही।’
‘यह क्या पत्तो! उस रात की बात भूल गयी?’
‘नही; किन्तु उस बात से अब काम ही क्या?’
उसका कंठ-स्वर स्थिर, किन्तु रूखा था। देवदास उसका मर्म नही जान सके, कहा- ‘मुझे क्षमा करो, मै तब इतना नही समझ सका था।’
‘चुप रहो, ये सब बाते मुझे नही सुहाती।’
‘मै जिस तरह से होगा, मां-बाप को राजी करूंगा। सिर्फ तुम...!’
पार्वती ने देवदास के मुंह की ओर एक बार तीखी नजर से देखकर कहा- ‘तुम्हारे ही मां-बाप है, मेरे नही? क्या उनकी इच्छा-अनिच्छा से मुझे कोई प्रयोजन नही है?’
देवदास ने लज्जित होकर कहा- ‘क्यो नही है पत्तो, पर वे लोग तो राजी है, सिर्फ तुम...!’
‘तुम कैसे जानतो हो कि वे लोग राजी है, वे बिल्कुल राजी नही है।’
देवदास ने हंसने की व्यर्थ की चेष्टा करके कहा- ‘अरे नही, वे लोग राजी है; यह मै अच्छी तरह से जनता हूं। सिर्फ तुम...!’
पार्वती ने बीच मे ही बात काटकर तीव्र कंठ से कहा- ‘सिर्फ मै तुम्हारे साथ? छि...!’ पलक मारते देवदास की दोनो आंखे अग्नि की तरह जल उठी। उसने अवरुद्ध कंठ से कहा- ‘पार्वती, क्या मुझे भूल गयी।’
पहले पार्वती भी कुछ चंचल हो उठी, किन्तु दूसरे ही क्षण आत्म-संवरण कर शांत और कठिन स्वर से उत्तर दिया- ‘नही, भूलूंगी क्यो? लड़कपन से ही तुम को देखती आयी हूं। होश संभला तभी से तुमसे डरती हूं- क्या उसी डर को तुम दिखाने आये हो? पर क्या मुण्े भी तुम नही पहचानते?’ यह कहकर वह निर्भीक दोनो आंखो को ऊपर उठाकर खड़ी हो रही।
पहले देवदास के मुंह से कोई बात नही निकली, फिर कहा- ‘सर्वदा से मुझसे तुम डरती ही आयी हो और कुछ नही?’
पार्वती ने दृढ़ स्वर से कहा - ‘नही और कुछ नही।’
‘सच कहती हो?’
‘हां, सच कहती हूं। तुम पर मेरी कुछ भी श्रद्धा नही है। मै जिसके यहां जा रही हूं, वे धनवान, बुद्धिमान, शांत और स्थिर है। वे धार्मिक है। मेरे बाप मेरा भला सोचते है, इसी से वे तुम्हारे जैसे अज्ञान, अव्यवस्थित वित्त, दुर्दान्त मनुष्य के हाथ मुझे किसी तरह नही देना चाहते। तुम रास्ता छोड़ दो।’
एक बार देवदास ने कुछ इधर-उधर किया। एक बार रास्ता छोड़ने के लिए भी तैयार हुए; परन्तु फिर दृढ़ता के साथ मुंह उठाकर कहा- ‘इतना अहंकार?’
पार्वती ने कहा - ‘क्यो नही? तुम कर सकते हो और मै नही? तुम मे रूप है, गुण नही, मुझ मे रूप भी है, गुण भी है... तुम बड़े आदमी हो, लेकिन मेरे पिता भी भिक्षुक नही है। इसे छोड़ मै स्वयं भी तुम लोगो से किसी अंश मे हीन नही रहूंगा।’
देवदास अवाक् रह गये। पार्वती ने फिर कहना आरंभ किया- ‘तुम क्या सोचते हो कि तुम मुझे हानि पहुंचाओगे? हां, अधिक नही, तो कुछ हानि अवश्य पहुंचा सकते हो, यह मै जानती हूं। अच्छा वही करो। मुझे सिर्फ रास्ता दो।’
देवदास ने हत्बुद्धि होकर कहा- ‘हानि किस तरह पहुंचा सकता हूं?’
पार्वती ने तत्क्षण उत्तर दिया- ‘अपवाद लगाकर वह बात तुम कहोगे।’
यह बात सुनकर देवदास वज्रहत की तरह देखते रहे। उनके मुख से केवल यही बात निकली- ‘अपवाद लगाऊंगा, मै?’
पार्वती ने विषैली हंसी हंसकर कहा- ‘जाओ, बचे हुए समय मे मेरे नाम मे कलंक लगाओ। उस रात मे मै तुम्हारे पास अकेली गयी थी, इसी बात को लेकर लोगो मे चारो ओर फैलाओ। इससे मन की बड़ी सांत्वना मिलेगी।’ यह कहते-कहते पार्वती के दर्पित कु्रद्ध होठ कांपते-कांपते स्थित हो गये।
किन्तु देवदास के हृदय मे क्रोध और अपमान से ज्वलामुखी पर्वत की भांति भीषण अग्नि सुलग रही थी। उन्होने अव्यक्त स्वर से कहा - ‘तुम क्या झूठी बदनामी उठाकर मै सांत्वना पाऊंगा।?’ - और उसी समय बंसी के मुठिये को घुमाकर, पकड़कर भीषण कंठ से कहा- ‘सुनो पार्वती, इतना रूपवान होना ठीक नही, अहंकार बहुत बढ़ जाता है।’ कह कहकर तनिक धीरे स्वर से कहा- ‘देखती नही हो, चन्द्रमा इतना सुन्दर है, इसी से उसमे कलंक का काला धब्बा लगा है। कमल कितना श्वेत है, इसीलिए उसमे काले भैरे बैठते है। आओ, तुम्हारे मुंह मे भी कुछ कलंक का चिन्ह दे दूं।’
देवदास के सह्म की सीमा जाती रही। उन्होने दृढ़ मुट्ठी से बंसी के मुठिये को पकड़कर इतने जोर से पार्वती के सिर मे मारा कि लगने के साथ ही सिर बायी भौ के नीचे तक फूट गया। पल भर मे सारा मुख खून से सराबोर हो गया।
पार्वती पृथ्वी पर गिर पड़ी। कहा- ‘देव दादा, क्या किया?’
देवदास ने बंसी टुकड़े-टुकड़े कर, पानी मे फैक उत्तर दिया- ‘अधिक कुछ नही जरा-सा कटा गया है।’
पार्वती आकुल कंठ से रो उठी- ‘बाप रे बाप, देव दादा!’
देवदास ने बारीक कुरते को फाड़कर पानी मे भिगोकर बांधते हुए कहा- ‘घबराओ नही पत्तो, यह हल्की-सी चोट जल्दी ही अच्छी हो जायेगी, सिर्फ दाग रह जायेगा। यदि कोई इसके विषय मे पूछे तो झूठी बात कहना, नही तो अपने कलंक की बात प्रकट करना।’
‘अरे बाप रे बाप!’
‘छिः! ऐसा न कहो पत्तो! विदाई के अंतिम दिनो मे सिर्फ एक निशान बनाये रखने के लिए यह चिन्ह दे दिया है। इस सोने से मुख को तुम आरसी मे कभी-कभी देखोगी तो?’ यह कहकर उत्तर पाने की कोई अपेक्षा न कर देवदास चलने के लिए तैयार हुए।
पार्वती ने व्याकुल होकर रोते-रोते कहा- ‘उफ! देव दादा!’
देवदास लौट आये। आंख के कोने मे एक बिंदु जल था। बहुत स्नेह-भरे कंठ से कहा- ‘क्यो, पत्तो?’
‘किसी से कहना मत।’
देवदास ने क्षण-भर मे ही खड़े होकर झुककर पार्वती के केशो के ऊपर उठाकर अधर स्पर्श कर कहा- ‘छिः! तुम क्या कोई दूसरी हो? शायद तुम्हे याद न हो, बचपन मे मैने शरारत से कई बार तुम्हारे कान मल दिये है।’
‘देव दादा, मुझे क्षमा करो।’
‘यह तुम्हे नही कहना होगा भाई, क्या सचमुच ही मुझे भूल गयी पत्तो? मैने कब तुमको क्षमा नही किया है?’
‘देव दादा...!’
‘पार्वती, तुम तो जानती ही हो, मै अधिक बाते नही कर सकता। बहुत सोच-विचार कर कोई काम मुझसे नही हो सकता, जो मन मे आता है वही कर बैठता हूं।’ यह कहकर देवदास ने पार्वती के सिर पर हाथ रखकर आर्शीर्वाद देते हुए कहा- ‘तुमने अच्छा ही किया। मेरे यहां रहकर सम्भवतः तुम सुख नही पाती, किन्तु तुम्हारे इस देव दादा को अक्षय स्वर्ग सुख मिलता।’
इसी मय बांध की दूसरी ओर से आदमी आ रहे थे। पार्वती धीरे-धीरे जल लेने के लिए उतरी थी।
देवदास चले गये। पार्वती जब घर लौटकर आयी, तो दिन ढल गया था। दादी ने उसे देखकर कहापत्तो, क्या पोखर खन के पानी लाती हो?’
किन्तु उसके मुंह की बात मुंह मे ही रह गयी। पार्वती के मुंह की ओर देखते ही चिल्ला उठी- ‘बाप रे बाप, यह क्या हुआ?’
घाव से अब भी खून बह रहा था। कपड़े का टुकड़ा प्रायः खून से तर हो गया था। रोते-रोते कहा‘बाप रे बाप, तेरा ब्याह है पत्तो!’
पत्तो ने सहज भाव से उत्तर दिया- ‘घाट पर पांव फिसल जाने से सिर के बल र्इंटो पर गिर पड़ी थी, जिससे कुछ चोट आ गयी।’
इसके बाद सब मिलकर सुश्रुषा करने लगे। देवदास ने सच कहा था- ‘आघात अधिक नही है।’